मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन, मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
जो बहार बिन न फ़िज़ाॅं सजे, तो करार कैसे हो प्यार बिन।
ये सिखा रही अब़ ज़िन्दगी, के न प्यार भी हो ख़ुमार बिन।
वो मुझे कभी न मिले मगर, है यकीन चैन वहीं गया,
है न जाने ऐसी भी बात क्या, जो सजी हुई इज़हार बिन।
मैं न चाहता मिले महजबीं,न तलाशता हूॅं मैं नाजनीं,
है मगर ये सोच बनी हुई,हो वो दिलनशीं अशरार बिन।
वो न रू-ब-रू तो मिले कभी,तसवीर से ही तो दीद हो,
मैं कभी मिलूं है ये आरज़ू, वो मिलें मगर मुझे ख़्वार बिन।
है यकीन दिल में सजा हुआ, वो करार हैं वो ही प्यार हैं,
वो इनायतें जो सज़ा दें तो सज ले “चहल”इसरार बिन।
स्वरचित/मौलिक रचना।
एच. एस. चाहिल। बिलासपुर। (छ. ग.)