इश्क़ तो इलाज है बुढ़ापे का——जवानी में फुर्सत कहाँ, छाई रहती है आवर्गी——-!
बुढ़ापा आते ही इश्क़ हो जाये तो ज़िन्दगी बन जाती है एक
बन्दगी——!
जवानी में इंसान करता रहता है ऐयाशी, बहुत करता है नादानियाँ और मनमानियाँ।
बुढ़ापे आते ही , निभानी पड़ती हैं ज़िम्मेदारियाँ।
बहुत फ़र्क़ है जवानी की और बुढ़ापे की सोच में।
जवानी में मर्द होता है दिल फेंक और बुढ़ापे में रहता है एक सच्चे जीवनसाथी की खोज में।
बुढ़ापे में इश्क़ बन जाता एक इलाज है, सच्चे साथी पर होता फिर नाज़ है।
वैसे तो जवानी हो या बुढ़ापा, इश्क़ करो तो करो शिद्दत से।
उम्र कोई भी हो, भरोसा करो अहसासे इश्क़ और मोहब्बत पे।
पर अक्सर ऐसा नहीं होता, जल्दबाज़ी कर इंसान जवानी में बहुत कुछ है खोता।
जवानी में होती है मदजोशी, और खून में बहुत होती है गर्मजोशी।
लेकिन बुढ़ापे में कह जाती है सब कुछ महज़ खामोशी।
जवानी में रहती है भाग दौड़, बुढ़ापे में प्यार मिलने पर उसे सकता नहीं कोई छोड़।
जवानी में होती है उत्तेजना, बुढ़ापे में होती है संवेदना।
ये भी सच है कि——-जवानी में होती है अवाज़ारी, और बुढ़ापे में एक साथी पाने की होती है लाचारी।
लेकिन बुढ़ापे का इश्क़ होता है स्थायी, क्योंकि होती है बहुत फुर्सत——इसीलिए बुढ़ापे में होती है तो होती है बेतहाशा मोहब्बत।
आख़िर में इतना ही कहूँगा, जवानी हो या बुढ़ापा, इश्क़ नहीं बनना चाहिए एक स्यापा।
क्योंकि इश्क़ है पाक और पवित्र——उम्र कोई भी हो, दाग़दार नहीं होना चाहिए चरित्र——!
लेखक——निरेन कुमार सचदेवा।