
हर सामर्थ्यवान को कहता हूँ,
इस दीवाली इतना कर जाना,
कोई घर अँधेरा जो दिख जाये,
रौशनी वहाँ भी बिखेर आना।
यह कहना न कि तुम कितने,
घरों को रौशन किया है,
कितने घर दीये जलाये,
खुशियाँ उनको दिया है।
गर ईश्वर मुझको भी,
सामर्थ्यवान बनाता,
पहल खुद से कर जाता,
कविता उसके बाद सुनाता।
अरे देखो उस बस्ती को,
कितनी सूनी सूनी है,
अंधकार की गुहा सरीखी,
उनकी जिंदगानी है।
बच्चे कैसे फुलझड़ी चलाये,
गृहिणी कैसे दीये जलाये,
नन्हें मुन्हें मुख उनके,
कैसे मुंह मीठा कर पाये।
कैसे नये वस्त्र वो पाये,
कैसे जीवन उमंग लाये,
कैसे दीवाली जगमग हो,
कैसे वे खर्च उठाये।
हर समर्थवान को कहता हूँ,
तुम अपनी नेकी दिखलाना,
न देखना औरों का कृत्य कोई,
कुछ अपने मन की कर जाना।
—- संतोष श्रीवास्तव “सम”
कांकेर छत्तीसगढ़।