कर उठी नृत्य कंचन-काया, सरसाया सोलहवाँ वसंत।।
पलकों ने निज मदिरालय से, छलकाया सोलहवाँ वसंत।।
कल तक तो थी चंचल हिरनी, बन गई हंसिनी वही आज।
देखते-देखते अनायास,
गदराया सोलहवाँ वसंत।।
आँखों में उसे देखते ही, भर गए फूल फिर दिखा न कुछ।
जी भरकर देख नहीं पाए, पर भाया सोलहवाँ वसंत।
जब हुईं चार चंचल आँखें, फिर डगमग होते दिखे पाँव।
सुध-बुध खोई, तन की,मन की, मस्ताया सोलहवाँ वसंत।
चाहों की घिरी घटा काली, छा गया अँधेरा राहों पर।
सूझता नहीं कुछ आगे का, भरमाया सोलहवाँ वसंत।।
यह कैसा पागलपन छाया,
देखा न कभी पहले ऎसा।
उलझी मन की उलझन ऎसी, उलझाया सोलहवाँ वसंत।
डाली से बिछड़ा फूल बना, तो बाँध धैर्य का टूट गया।
मोटी-मोटी आँखों में जल, भर लाया सोलहवाँ वसंत।।
—डाॅ०अनिल गहलौत
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