काँटों पर चलकर आई हैं, फूलों-सी जो थीं कल आँखें।
हुईं खुरदरी खादी-सी अब, थीं जो अब तक मलमल आँखें।।
बोए जो बबूल औरों को, भोग रहीं उसका फल आँखें।
गईं हँसाने हँसकर लौटीं, छलने गईं छलाछल आँखें।।
होती थीं आनंदित मन में, आँसू दे-देकर औरों को।
खाकर चोट फिर रही हैं अब, बौराई-सी घायल आँखें।।
उड़ी-उड़ी फिरतीं तितली-सी, मँडराती रहतीं फूलों पर।
बैठें नहीं चैन से पल भर, उच्छृंखल-सी चंचल आँखें।।
मिलती हैं आँखों से आँखें, लगतीं उगी भोर-सी चमचम।
तनिक बात पर कभी रूठतीं, संध्या-सी जातीं ढल आँखें।।
चतुर सयानी बनती थीं अति,
आईं अब पहाड़ के नीचे।
उलझा आईं प्रश्न स्वयं ही, खोज रहीं उसका हल आँखें।।
अमृत-पान करती थीं पल-पल, देख-देख छवि मधुर किसी की।
चला गया वह, रोतीं छिप-छिप, पीतीं सागर का जल आँखें।।
—डाॅ०अनिल गहलौत