
कुंठित हो चुकी मानवता
इंसानियत तार तार हो चुका
ऐ मेरे परवरदिगार
आज धरती बेजार हो चुका ।
चंद रुपयों की खातिर लोग
तिजोरियां भरने की सोच रहे
इधर इंसान की जिंदगी दांव में
उधर लालची भेड़िए नोच रहे ।
एक आदमी इसलिए मर गया
क्योंकि एंबुलेंस के पैसे न थे
क्या करेगा रे इंसान पैसों का
क्या सोने के महल बनाएगा ।
कहीं बीमारी कहीं कालाबाजारी
और कुछ लोग कर रहे कलाकारी
आज इंसानी जीवन की कीमत
हो गई है मानो भाजी व तरकारी ।
आज मदद के दो हाथ चाहिए
एक दूसरे का बस साथ चाहिए
जीवन रहा तो कमा लेंगे बहुत
हर किसी का परमार्थ चाहिए !
✍️ - एस के नीरज