
हद नदी की थी , घर बना बैठे ।
बाढ़ में अपना , सब डुबा बैठे ।।
रात सपने में , अब नहीं आना ।
शक़्ल तेरी भी , हम भुला बैठै ।
ख़त तेरे मुझसे , बात करते थे ।
बाढ़ आई जब , ख़त बहा बैठे ।।
डूबना ही था नाव को इक दिन ।
हम जो साहिल से , दिल लगा बैठे ।।
जीतना हमको , अब न अपनों से ।
इसलिए खुद को , हम हरा बैठे ।।
जल रहे साथी , लोग जाने क्यूँ ।
एक दिल अपना , वो लुटा बैठे ।।
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बृजमोहन “साथी” डबरा ग्वालियर म.प्र. (मो.9981013061)