चालाकियाँ जानी नहीं-“सुविधा पंडित”

आँखों में उसके फिर वही दीवानगी पढ़ने लगी,
रुसवाइयों का डर नहीं आवारगी पढ़ने लगी।

मासूम थी मैं तो कभी चालाकियाँ जानी नहीं।
पर अब तेरी बातों में भी मैं वो ठगी पढ़ने लगी।

नेता हमेशा देश को खाते रहे अंदर से यों
दीमक लगा लकड़ी पे ज्यों वो गंदगी पढ़ने लगी।

क्या -क्या किया पाने को दौलत इस जहाँ में आज तक।
मैं आज-कल आँखों में तेरे तिश्नगी पढ़ने लगी।

है कौन समझे जो गरीबों की यहाँ मजबूरियाँ
मैं आज-कल उनकी वही बेचारगी पढ़ने लगी।

मैं तो समझती ही रही दिल की लगी जिसको सनम।
इस बेवफ़ाई में तिरी अब दिल्लगी पढ़ने लगी।

जब से बुज़ुर्गों की दुआ मिलने लगी मुझको सभी
सेवा में उनके ही तो मैं आसूदगी पढ़ने लगी।

तुझको बना के रब हमेशा ही इबादत की तेरी
पर अब ग़ज़ल में मैं ख़ुदा की बन्दगी पढ़ने लगी।

बेटा न हो मुझको ख़ुदा की ये रज़ा मंज़ूर है
कम है नहीं बेटी मैं उसमेँ ज़िन्दगी पढ़ने लगी।

वो हुस्न ही क्या बाहरी संसाधनों पे जो टिका
दिलकश तेरे रुखसार की जो सादगी पढ़ने लगी।

मिलने लगी जब से यहाँ आरक्षितों को नौकरी
किस्मत में बाक़ी नौजवां के तीरगी प ढ़ने लगी।

सुविधा पंडित

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