फटा ढोल ही धर्म-निरपेक्षता का, बजाते रहे हो बजाते रहोगे।
कि हिंदुत्व की राह में खूब काँटे, बिछाते रहे फिर बिछाते रहोगे।।
गँवाया जनाधार, छोड़ी नहीं रट, समय की हवा को न पहचान पाए।
इसी बात पर मात खाते रहे हो,
कि खाते रहे और खाते रहोगे।
सदा ही बढ़ावा दिया भेड़ियों को, दिए हार उपहार में नित उन्हें ही।
गला रेत देते, गले से उन्हीं को, लगाते रहे हो लगाते रहोगे।।
न दिखती प्रगति, राष्ट्र का हित न दिखता, तुम्हें धर्म दिखता, तुम्हें जाति दिखती।
रटा बस वही प्रश्न उस प्रश्न को ही, उठाते रहे हो उठाते रहोगे।।
घड़ा भर चुका पाप का अब तुम्हारा, हुई मानसिकता स्वयं आत्मघाती।
सदा एक हथियार तुष्टीकरण को बनाते रहे हो बनाते रहोगे।
—डाॅ०अनिल गहलौत