पिता का होना वटवृक्ष होना है.-“पंचराज यादव”

अक्सर मुझे याद आते हैं
रेगिस्तान में जेठ की तपती धूप में
व्याकुल राही को मिले
छायादार वटवृक्ष की तरह
उनके हाथों की उभरी नसें
लगती हैं हमें मूसला जड़
किसी विशाल उपवन के मध्य
खड़े सबसे पुराने पेड जैसे.
पिता का होना
उस स्तंभ जैसा होना है
जिस पर पंछी बनाते हैं घोंसला
वृक्ष की विभिन्न शिराओं का
साहचर्य पाकर.
जब होने लगता हूँ असहाय
पिता की एड़ियों की फटी बिवाइयाँ
देती हैं कर्मरत होने की प्रेरणा
जीवन में दृढ़ता से आगे बढ़ने की.
जैसे भयंकर चक्रवात में
मिट्टी का साथ छूट जाने पर भी
सफेद दिखती जड़ों के साथ
अकेला खड़ा दिखता है
एक बेल का पेड़.
पिता का होना वटवृक्ष होना है
संताने इसकी कोपलें हैं
आधार हैं पिता .
पिता की पीली पड़ी आँखें
लगती हैं जैसे
बारिश में भीगे हुए सरसों के पीले फूल.
होते हैं पिता
कचहरियों में
पुराने कुर्ते के कपडे से बना
एक झोला हाँथ में लटकाए
वे होते हैं
हल के हत्थे पर
घर की चौपाल में
खलिहान में, बाग में.
सुनाई पड़ती है
खेत की मेड पर
रगड़ खाती पिता की एडियों की छाप
मैं बैठता हूँ मिट्टी के पास
ताकि भूल न जाऊँ
उस श्रम का बलिदान
दूर न हो जाऊँ मिट्टी की सुगंध से
अपने पिता के मन से ।।

पंचराज यादव
तेजपुर विश्वविद्यालय तेजपुर, असम

2 Comments

  1. Sudha yadav

    आपने बहुत ही भावपूर्ण कविताएं लिखी है पिता ही वह वृक्ष होता है जो अपने फलों को कभी सूखने नहीं देता।

  2. , sudha yadav

    आपने बहुत ही भावपूर्ण कविताएं लिखी हैं ।पिता ही वह वृक्ष होता है जो अपने फलों को कभी सूखने नहीं देता।

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