
वक्त का क्या?
कल गुजरा था बहुत पास से,
रिश्ता तोड़ा कायनात से,
उम्मीद छीना था ना जाने कितने विश्वास से ,
पास होकर भी गुजरा असफल एहसासों से,
रोई आँखें भर-भर आहे,
दुख ने दिया सहारा फैलाकर बाहें,
निराश होकर चिल्लाया मन,
तेज बुखार से तपता तन,
हताश हुआ एक और अहम् ,
उनके साथ खडे थे ना हम।
लगन शिक्षण की देखी थी,
आज परिणाम परीक्षण देखी ,
ओह…..
क्रोध भी था पर अन्तर्मन में ,
चोट गहरा था शक्ल और मन में,
कैसे करूँ मैं अब नहीं जोश बचा,
सारा मस्तिष्क लुटा दिया अब ना होश बचा ,
निराश, हताश, आशाहीन, नकारात्मक को,
क्या बोलूँ कैसे कहूँ कि आशावान सकारात्मक हो ….।
दोस्त कमाल के होने चाहिए,
कुछ सफेद कुछ रंगीन होने चाहिए।
कुछ सफर की खुमारी सुनाएं तो ,
कुछ खुशहाल जीवंतशील शुमार होने चाहिए।
बच जाती है ना जाने कितनी जान,
आत्महत्या पर चलाते आत्मविश्वास अभियान।
सिखाते वक्त का नियम कुछ इस तरह…..
वक्त की चाभी कभी नहीं रूकी,
अडिग निरंतर चलती रही ,
कल भी चली थी,
आज भी चलायमान रही।
बस एक अंतर दिखा….
कल में और आज में….
कल निराशा में रोते दिखा ,
आज आशा में लगाते गोते दिखा…. ।
(स्वरचित)
प्रतिभा पाण्डेय “प्रति”
चेन्नई