वह झक्क सफेदी कहाँ गई, अंतस् में कालापन क्यों है?
मन था वसंत अब, है पतझड़, सूखा-सूखा सावन क्यों है??
जो है उसका संतोष नहीं, हर ओर “हाय” बस पैसे की।
पूरब से लेकर पश्चिम तक, आकुल-व्याकुल-सा मन क्यों है??
“श्रम-स्वेदी अर्जित” नोटों का, अब सार्वजनिक आह्लाद नहीं।
“काले धन वाली” लक्ष्मी का सामूहिक अवाहन क्यों है??
जम गई बर्फ संबंधों पर, पाषाण बन गया मनुज आज।
हो गया ठोस क्यों तरलित मन, संन्यासी संवेदन क्यों है??
फुफकार रही सर्पिणी बनी, विषभरी हवा, घुट रही साँस।
है पर्यावरण टँगा उलटा, साँसत में वन-कानन क्यों है??
राजे-रजवाड़े झुकते थे, ऋषियों-मुनियों के चरणों में।
क्यों अर्थ-पिशाच बन गया नर,
धनपशु का आराधन क्यों है।
प्रवचन-सत्संग, कथा-वाचन,पोथियाँ, यजन, पूजन-अर्चन।
तीर्थाटन करके भी न रुका, मन में इतना विचलन क्यों है??
—डाॅ०अनिल गहलौत💐
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