पराधीन है तन मन मेरा
विवश जिन्दगी ने छोड़ा है।
पानी बरसे या धन बरसे,
कुछ पाने का अधिकार नहीं।
महल-मड़ैया चाहे जो हो,
अब मुझको सरोकार नहीं।
अपयश का सब कारण देकर
‘दुरवस्था’ ने रख छोड़ा है।
बसन्त बहे, घिरे चौमासा,
पर मुझको छुए बहार नहीं।
टूट गये हैं सारे बन्धन,
अब उनको मुझसे प्यार नहीं।
सम्बन्धों के रूप बदलते…
पल-पल ने ऐसे मोड़ा है।
काँप-काँप है जीवन चलता ,
जैसे मौत मिला है करता।
किससे क्या सुनना पड़ जाए,
डर से मन हिलता है रहता।
ख्याल न कोई प्रतिकारों का
लाचारी ने कस छोड़ा है।
महा-मौन, बहुश्रुत बन गया,
गर्जन-तर्जन क्या न सुन गया।
पत्थर बनकर सहनशक्ति का,
पद-दलितों सा भार सह गया ।
नित-नित धरती में गड़ता हूँ,
जड़ता का ऐसा रोड़ा है।
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बृजेश आनन्द राय, जौनपुर