
फिर कनेर सी हँसी लुटाने वाले आये दिन।
बाँहों में भर नींद चुराने वाले आये दिन।।
कुछ अजीब सी धड़कन बढ़ने लगी शिराओं में।
अपनी हरकत फिर दिखलाने वाले आये दिन।।
लगे सुलगने अंग-अंग फिर रह-रह शाम सुबह।
फिर आये ये अधरों को दहकाने वाले दिन।।
लगता टूटेंगीं सारी मर्यादाऐं फिर से।
बाहर भीतर तक सिहराने वाले आये दिन।।
होने लगीं बड़ी हलचल बर्फीली घाटी में।
फिर आये संन्यासी मन पिघलाने वाले दिन।।
✍🏽 रवेन्द्र पाल सिंह ‘रसिक’ मथुरा