
जब से मैंने देखा तुमको,
अपनापन सा लगता है l
रजनी सजनी सी लगती है,
दिन दुल्हन सा लगता है ll
छूमंतर है पीर पराई,आती है अंगड़ाई सी l
रोम रोम रोमांचित होता, तरुणाई उफनाई सी ll
ले खुशबू बहती पूरबाई ,
क्यों अच्छा सा लगता है l
जब से मैंने तुमको देखा,
अपनापन सा लगता है ll
दूर देश के दो रहवासी, ऐसे कैसे पास हुए l
प्रेम परस्पर करने वाले ,तम के लिए प्रकाश हुए ll
एक दूसरे के बिन जीवन,
सूना सूना लगता है l
जब से मैंने देखा तुमको,
अपनापन सा लगता है ll
जीवन का संसार तुम्हीं हो, जीवन का आधार तुम्हीं l
तुममे भावी सृजन समाहित, मेरा पहला प्यार तुम्हीं ll
प्रणय निवेदन का प्रतिवेदन,
आवेदन सा लगता है l
जब से मैंने तुमको देखा,
अपनापन सा लगता है ll
तुम कोरा कागज मैं स्याही, मिल कविता-संसार लिखें l
जहां जहां अंगार बिछा है, वहां वहां शृंगार लिखें ll
जो सुन्दर सपना देखा है ,
वो सार्थक सा लगता है l
जब से मैंने तुमको देखा,
अपनापन सा लगता है ll
ग्राम कवि सन्तोष पाण्डेय “सरित” गुरु जी