आँखें ऎसी जिन्हें देखते, रहने का ही मन हो।
बातें ऎसी जिनको सुनते, रहने का ही मन हो।।
एक छोर पर दूर खड़ीं तुम, और दूसरे पर हम।
डोर बँधी हो जिसे खींचते, रहने का ही मन हो।।
खिलता रहे वसंत अधर पर, हो सुगंध सरसाती।
आँखों में घन, फिर भी, हँसते रहने का ही मन हो।।
पथ पर काँटे, पाँव विवाई, हो माथे श्रम-सीकर।
थका-थका तन किंतु भागते, रहने का ही मन हो।।
फूलों-सा तन छूने से ही, जो कुम्हलाने लगता।
फिर भी हर पल उसे जकड़ते, रहने का ही मन हो।
—डाॅ० अनिल गहलौत