जर्द हैं सांसे
दग्ध है
हृदय का हर कोना
कैसे समझाऊं
नहीं चाहता दिल
किसी का होना
प्रेम के
हर हर्फ
आधे-अधूरे रहे
शब्द कम
मौन ज्यादा
यूं मचलते रहे
हर पुकार
प्रेम की
अब तो लौट आई
कैसे दूं
दस्तक भी
खो गई है लुनाई
तारे अब
नहीं दिखते
टिमटिमाते छत पर
शाम ढलती है
रात आती है
काम खत्म होने पर
खो गई है
मुस्कुराने की
वो बेवजह जिद्द
सूरज रोज
आता है
लेकर अपनी फेहरिस्त
काल चक्र
घूमता ही
रहता है अनवरत
उसे क्या पता
मन ने खो दी है
फड़फड़ाने की आदत
✒️डाॅ.कृष्णा मणिश्री