उठो भरत – “उज्ज्वल प्रताप सहाय”

उठो भरत, संहार करो।
ना बात करो, ना विचार करो,
जो गिरा रक्त शहीदों का,
उससे तिलक करो व वार करो।
अब शिव तांडव हो जाने दो,
धर्म अहिंसा खो जाने दो,
दुश्मन दमन वध होता है,
युद्ध बिगुल का फुॅकार करो।
उठो भरत, संहार करो।

शास्त्रार्थ से अब ना हो पायेगा,
शस्त्र से निशां मिट जायेगा,
जन्मा है हमसे ही ये आतंक,
कुचलने से अब ना इन्कार करो।
उठो भरत, संहार करो।
रूप विकट विकराल करो,
दोजख सा इनका हाल करो,
बुजदिल, नापाक, हैवान हैं ये,
सर्वनाश करो, प्रतिकार करो।
उठो पार्थ, संहार करो।
हर बार शत्रु का दमन किया,
हैवानो का तुमने शमन दिया,
फिर एक वज्रपात बन के,
हर दुष्कर्मी को निराहार करो।
उठो सौर्य, संहार करो।
संस्कार-सभ्यता फैलाया जिसने,
मानव में मानवता लाया जिसने,
एक युग से जो अविचल, अटल खङा,
उस मर्यादा को बरकरार करो।
उठो भक्त, संहार करो।

जब दुनिया ने युद्ध देखा ना था, हम कुरुक्षेत्र में शामिल थे,
दुनिया में जब अक्षर ना थे, हम वेदों में समाहित थे,
जब असत्य, सत्य से बढ जाये, अधर्म, धर्म पर चढ़ जाये,
सादगी कायरता बनने से पहले, मेरा रक्त भी स्वीकार करो।
चलो भरत, संहार करो, ना बात करो, ना विचार करो।

बायें कंधे पर हिमालय कवच, दायें पर रेगिस्तान बिछा है,
मस्तक को ठंडक देती बर्फ, पावो को हिन्द ने सदा सिन्चा है,
ऐसे अद्भुत भारतमाता को, ये कायर ऑखे दिखलायेन्गे ?

इनको कालिख पोतों और जीना इनका दुश्वार करो।
चलो भरत, संहार करो। सर्वनाश करो, प्रतिकार करो।

उठो भरत, संहार करो।
ना बात करो, ना विचार करो,
जो गिरा रक्त शहीदों का,
उससे तिलक करो व वार करो।

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