उम्मीदें , ख्वाहिशें, ज़रूरतें, हैं मेरे साथ, बड़ा हुआ हूँ जब से मैं , रहा नहीं अकेला ।क्या करें , इस दुनिया में आ चुके हैं तो जीना ही पड़ेगा, आख़िर तो उस रचेता का ही रचा हुआ है ये खेला ।थक गया हूँ जिम्मेदारियाँ और रिश्तेदारियाँ निभाते निभाते, हर दिन मानो लगा रहता है रिश्तेदारों का मेला ।फ़ुर्सत के चंद पल, फ़क़त अपने साथ बिताना चाहता हूँ, पता नहीं कि कब आएगी ऐसी शाम , ऐसी बेला ।दोष तो मेरा भी है, दबा हुआ हूँ इन आरजुओं और तमन्नाओं के बोझ की नीचे , और भागता रहता हूँ हर दिन इनके पीछे ।कश्मकश यही है कि ये कम होने का या पूरे होने का नहीं लेतीं नाम, ये कभी लेनी ही नहीं देती , मुझको चैन और आराम ।अगर एक इच्छा पूरी हो जाती है, तो एक और उसी वक़्त जाग जाती है, आज़ाद हो पाऊँ इन इच्छाओं से , वो घड़ी ही नहीं आती है ।दोस्तो, अब थक चुका हूँ , शायद हूँ थोड़ा हताश भी, इन तमन्नाओं और ज़िम्मेदारियों की क़ैद से आज़ादी पाना चाहता हूँ !कुछ दिन सिर्फ़ अपने साथ, एकांत में बिताना चाहता हूँ ।जानता हूँ ये है नामुमकिन , मेरी आख़िरी साँस तक ये अहसास मुझे ज़ोर से पकड़ के रखेंगे, बेड़ियों में जकड़ के रखेंगे !क्या आप सब के जिंदगानियों की भी यही है वास्तविकता , यही है कहानी ?सच सुनना चाहता हूँ , सुनना चाहता हूँ जवाब मेरे इस प्रश्न का , आपकी ज़ुबानी !
लेखक निरेन कुमार सचदेवा
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