ए साहिब! मैं रहती जरूर हूँ आपके शहर में,
पर दिल पड़ा है मेरा अपने गाँव में,
आधुनिक बन गयी हूँ पर आँचल रखती हूँ
ताकि बेटी को सुला सकूँ उसकी छाँव में।
छीन ली गयी हैं छोटी छोटी खुशियां भी मेरी,
आधुनिकता और विकास के नाम पर,
कैसे समझाऊँ कितना सुखद अहसास था,
मुंडेर पर बोलते कौवे की काँव काँव में।
हर रोज रचे जाते हैं षड्यंत्र तेरे शहर में,
बस ताकत एक दूजे की आजमाने को।
मेरे गाँव में बिना द्वेष के फैसला हो जाता,
ताकत पता चल जाती कुश्ती के दाँव में।
बची है अब भी इतनी तहज़ीब मेरे गाँव में,
शरीक होते हैं एक दूजे के दुःख में हम,
फुर्सत मिले तो “सुलक्षणा” देखना जाकर,
रुतबे की बेड़ियाँ नहीं बंधी हैं पाँव में।
©® डॉ सुलक्षणा