कभी कभी ख्याल भी,आराम करना चाहते हैं
बैठे बैठे यूं ही,सुबह से शाम करना चाहते हैं
चली है एक आंधी,अंधविश्वास की जनाब
वो लोग,फिर से हमें गुलाम करना चाहते हैं
जपो तुम अपने और वो अपने आराध्य को
उन्हें तो करने दो जो काम करना चाहते हैं
मनाओ तुम अपने और अपने त्यौहारों को यूं ही
ये कौन हैं जो धर्म को बदनाम करना चाहते हैं
रस्तों पर तो होते ही हैं काटें,क्यों घबराना
तेरे हौंसले यार,तुझे सलाम करना चाहते हैं
क्यों सोचना है यार,कोई कुछ भी समझे
वो बस,रुसवा तुम्हें,सरेआम करना चाहते हैं
हद है,कि अपनी आवाज़ भी नही उठा सकते
वो तानाशाही अब,खुलेआम करना चाहते हैं
डॉ विनोद कुमार शकुचंद्र