किसे जगत में क्या मिलना है;
‘न निश्चित-समय, न दिन-रातें!!’
प्रेम – प्यार बस कहने को है;
‘कैसा-चॉद’, चॉद की बातें !!
बचपन से कितने मित्र मिले;
सपनों के कितने चित्र खिले!
भॉति-भॉति के मुख-दर्शन में;
‘मन-लूटे-हुए-चरित्र’ मिले!
सबकी-सब बहुरंगी-माया;
पर किससे कितना निभ पाया!
जहॉ-जहॉ थी प्रेमिल बातें;
वहॉ-वहॉ विरहा की छाया!
तब वो लगता कितना सच था:
रहे राग बस कल्पित गाते!
‘प्रेम-प्यार’ बस कहने को है;
‘कैसा-चॉद’, चॉद की बातें!!
‘दीर्घ-नयन से दृष्टि व डोरे;
काले – सर्पिल – केश – घनेरे!
दमकति-दशन, कपोलन-गोरे;
सुमुखि-सलोनी, रूपसि-भोरे!’
उस अवसर सब रही कल्पना…
प्रिय-दर्शन की विविध-अल्पना!
सदा खोज वह उत्तम सुख की
जिसमें मन की व्यर्थ जल्पना..!
आज सोच में डूब-डूबकर
ऑसू में कंकर ही लाते!
‘प्रेम-प्यार’ बस कहने को है;
‘कैसा-चॉद’, चॉद की बातें !!
‘कंचन-तन’ पे आहें-भरना;
सुन्दरता को देख मचलना!
रूप की छलकी गागर पा-कर
‘अमर-प्रेममय-मद’ में जीना!
आलिंगन में बध-बध जाना;
तन-मन को, तन-मन से पाना!
‘अन्त: स्रावि-ग्रन्थि’ से भरकर-
‘जैवि-चाह’ में मर-मर जाना!
अलग हुई जब आज परिस्थिति—
खोया हुआ ‘प्रिया-मन’ पाते!
प्रेम-प्यार बस कहने को है,
‘कैसा-चॉद’, चॉद की बातें!!
बीती – वर्षा और फुहारें;
चली जा चुकीं आज बहारें!
‘सूखे- बसन्त- की- गलियों-में’-
झुलस-गईं हैं सब कचनारें!
अब न बदरी भाव की बरसे;
अब न प्राण, प्रिया बिन तरसे!
अब न संग-साथ की लिप्सा
अब न दर्शन को मन- हुलसे!
अब तो चहकी-गुलजारों में-
रही याद ‘कर्कश-आघातें’!
‘प्रेम-प्यार’ बस कहने को है;
‘कैसा-चॉद’, चॉद की बातें !!
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🖍️ बृजेश आनन्द राय, जौनपुर