क्यूँ भागती हैं औरतें ?

सब हैं कमजोर असहाय सी,
तरलवत् बहाव सी,
अनेकानेक रोकटोक,
बचपन से रसोई में दी गई झोंक ।

पक्षपाती मिलता प्यार,
बगल की औरत करती प्रहार,
बहू ना हुई बेटी हो जैसे,
फिर क्यूँ हर औरत की है गुहार?

संग साथ रहना रास नहीं,
अकेली ब्याहना अम्मा; हो जहाँ सास नहीं,
ऐसी सोच खुद औरत की औरत से क्यूँ?
माँ को छोड़, किसी औरत पर विश्वास नहीं।

आदिकाल से ही महिला,
महिला की दुश्मन,
कभी ना संग चली; चलती छिन्न-भिन्न,
अब कुछ की गुंजाइश आ पड़ी है,
फिर भी रहती अभी भी तन-तन।

क्या साबित करना चाहती हैं औरतें?
नाटकीयता से क्या ठगना चाहती हैं औरतें?
बेशर्मी;
एक औरत की औरत से ना बनी कभी!
फिर पुरुष प्रेम के पीछे,क्यूँ भागती हैं
औरतें?

रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित और सर्वाधिकार सुरक्षित है।

प्रतिभा पाण्डेय “प्रति”
चेन्नई

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