कोई अपना रुआब देने लगे ।
तल्ख़ियों में जवाब देने लगे ।।
जिन्हें लायक बना दिया हमनें ।
दोष वे ही ज़नाब देने लगे ।।
क़र्ज़ माँ-बाप का उतर जाये ।
लाड़ले अब हिसाब देने लगे ।।
अर्थ अब इसका क्या निकाले हम ।
वे तो काला गुलाब देने लगे ।।
ख़ुद को क़ाबिल समझना उस दिन से ।
ज़िंदगी जब ख़िताब देने लगे ।।
हमने ग़ालिब को क्या पढ़ा साथी।
इश्क़ का इंक़लाब देने लगे ।।
बृजमोहन “साथी” डबरा ग्वालियर म.प्र.