गुजरा जमाना-“प्रीतम कुमार झा”

बीते वक्त का कोई पन्ना,
जब भी कोई पलटता है।
खोया कोई पल तब आकर,
नम आंखों को करता है ।

काश ठहर जाता वो लम्हा,
काश न तुम जाने पाते।
काश न ढलता अपना सूरज,
काश तुम्हें सच कह पाते।

भावों की एक नदी थी जिसमे, हम तुम पार उतरते थे
एक दूजे के दर्पण थे हम,सूरत देखा करते थे।

दिन निकला था पहले सा हीं
रातें भी पहले जैसी।
मगर नजारे बदल गए थे,
सब थे लेकिन तूं ना थी।

सब हंसते पर रोता मैं था,
बोझ पड़ा था यों दिल पर।
बस धड़कन चीत्कार रही थी
मौन भी करता थर-थर-थर ।

सपनों में भी मिल लेते तो, सच हीं माना करते थे,
एक दूजे के दर्पण थे हम, सूरत देखा करते थे।
प्रीतम कुमार झा,
महुआ वैशाली बिहार।

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