चाँद को छूने चले पर, है अभागा हाथ काला।
अब कहो कैसे कहाँ से, तोड़कर लाएँ उजाला।।
बोल तो दूधों धुले हैं, किंतु करनी है विषैली।
वोट लेकर काम पड़ने, पर वही हीला-हवाला।
अब नहीं आशय किसी का, दिख रहा है ज्योतिधर्मी।
झूठ की छल-छद्म की है, हर गले में एक माला।।
हम कहाँ वे हम रहे जो, थे कभी उजले धवल-से।
आज लटका दिख रहा है, शुभ्रता पर एक ताला।।
‘कंठ’ में तो है सभी के ज्ञान की गागर छलकती।
किंतु ‘मस्तक’ में किसी के भी नहीं है एक प्याला।।
बाइबिल, गुरुग्रंथ, गीता, और मानस सब भुलाए।
आज हर आदर्श को पैरों तले है रोंद डाला।।
ओढ़ कुहरा सूर्य तक भी, ठंड में सिकुड़ा पड़ा है।
डर रहीं फसलें पड़े अब, उग्र पाले से न पाला।।
—-डाॅ०अनिल गहलौत