अनगिन भावों और संभावनाओं का प्रवेश द्वार होता है,चांद का बादल में छिपना।किसी बालमन के साथ आंख_मिचौली खेलता है,चांद का कभी बादलरूपी चादर ओढ़ना तो कभी उसे निकलकर चिढ़ाना।बूढ़ी बेबस आंखों को असीम सुख देता हैचांद का निकलना जब वे अपनी थकी देह को निंद्रा की आगोश में सौंप कर प्रभु में लीन होना चाहती है,नए नवेले जोड़े को तो ऐसा लगता हैजैसे चांद बना ही उनके उल्लास,उमंग और नूतन सृजन के लिय हो।पर चांद उनके लिए बहुत अजीजहोता है,जिन्हें न तो किसीआराम की चाहत होती है, न किसी अटखेली का शौक,और नहीं किसी नव _सृजन की उम्मीद,उन्हें तो बस अपने प्रभु रूपी प्रियतम की छवि उस चांद में दिखती है, जिसे वो अपलक निहारता है,चाहता है, महसूस करता है, जिसमें न पाने की लालसा है ,न खोने का डर है तो बस ’बेहद’ सुकून।रजनी प्रभा
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