चीर घोर कुहरे की चादर, सूरज निकला है।
फूल कमल के खिले आज फिर, मौसम बदला है।।
धूल चाटते दिखे भ्रष्ट सब, कुर्सी के लोभी।
“लोक-देवता” को समझे थे, यह तो पगला है।।
कोसा राष्ट्रसेवियों को नित, पानी पी-पी कर।
उनको धोकर रख देने को, जनमत उबला है।
खड़े सनातन के विरोध में, उगल रहे थे विष।
उन साँपों का फन जनता ने, ढँग से कुचला है।
चोरों का ही गठबंधन है, अब यह पोल खुली।
सुप्त झूठ के जल पर सच का, पत्थर उछला है।।
ऊँच-नीच का भेद भुलाकर, जनता एक हुई।
लोकतंत्र परिपक्व हुआ अब, भारत सँभला है।।
रस्सी तो जल गई देख लो, ऎंठ नहीं निकली।
हाल हुआ यद्यपि दुष्टों का, कैसा पतला है।।
—डाॅ०अनिल गहलौत
Wah wah khoob👌👌✍️✍️
वाह क्या बात है! सर् नवीन उपमान नवीन कथ्य है।