ज़िन्दगी के रंग कई रे-“निरेन कुमार सचदेवा”

इस ज़िन्दगी से हैं हज़ारों शिकायतें ——मगर इस तस्वीर तो देख याद आ गई उस परमेश्वर की इनायतें।
इस तस्वीर ने मुझे कर दिया ख़ामोश, मेरे ज़मीर को मानो लग गया है झटका!!
क्यूँ तू इतना बेरहम है मेरे ख़ुदा?
आख़िर क्या है इन ग़रीबों की ख़ता?
बस यही, कि नहीं है रईसी।
दिन भर मेहनत कर, क्या ये दो निवाले भी चैन से खा पाते हैं कभी??
मालूम है मुझे कि परम परमेश्वर का क्या होगा जवाब।
यही, कि सब अपनी क़िस्मत अपने साथ लेकर आते हैं जनाब।
बात में है दम, हरेक कि बहुत फ़र्क़ है ज़िन्दगी ।
लेकिन इस तस्वीर को देख, हुई शर्मिंदगी।
लेकिन फिर ऐसे भी हैं लोग, जो विकलांग होते हैं और माँग रहे होते हैं भीख।
तो मुझे इस तस्वीर की देख मिली है यही सीख।
मैं हूँ खुशनसीब, मेरे पास है घर, है एक छत , है दो वक़्त की रोटी।
कुछ लोग तो सारी ज़िन्दगी सड़कों पर सो कर बिता देते हैं, उनकी क़िस्मत होती है ऐसी खोटी।
लेकिन ये बात भी सच है , कि महज़ दौलत होने पर ही, ज़िन्दगी नहीं हो जाती है मुकम्मल।
ख़ुशियाँ होनी चाहिए , चैन सुकून होना चाहिए , तभी ज़िन्दगी हो पाती है सरल।
शुक्राना करता हूँ मैं उस मालिक का, करता हूँ निस दिन उसकी इबादत।
लेकिन इतनी इल्तजा है मेरी , ऐ ख़ुदा, कि कोई भूखा पेट ना सोये , ये है मेरी दिल्ली हसरत।


लेखक—-निरेन कुमार सचदेवा।

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