डगमगाती, काँपती-सी-“डाॅ०अनिल गहलौत”

डगमगाती, काँपती-सी, नाव कागज की‌ बिचारी।
चल दिए लेकर भँवर में,
धन्य है हिम्मत तुम्हारी।।

हो रहे कुछ साँप अंधे, सच न दिखता सामने का।
चुभ गया काँटा, तने तो, पर नहीं कैंचुल उतारी।।

बाँधने घंटी गले में, वे ग‌ए थे, धर दबोचे।
शक्ति बिल्ली की न आँकी, व्यर्थ ही ले ली सुपारी।।

भिड़ रहे पप्पू व दीदी, हैं बहन-बबुआ बुझे-से।
पिट चुकी अब जातिवादी, वह समाजी-शिल्पकारी।।

ताक में थे हिंद को फिर काटकर दो-फाड़ करने।
खीझते हैं, भोथरी जो, हो चुकी उनकी दुधारी।।

अब न फँसनी जाल में, मछली सयानी हो चुकी है।
राष्ट्रवादी चेतना हर स्वार्थ पर है आज भारी।।

बज रहा हर ओर डंका, राम‌जी के नाम का अब।
चंडिका जनता बनी अब, सिंह की करके सवारी।।
डाॅ०अनिल गहलौत

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