डगमगाती,अचकचाती नाव कागज की तुम्हारी।
चल दिए लेकर भँवर में, है नहीं क्या जान प्यारी??
हो रहे कुछ साँप अंधे, सच न दिखता सामने का।
चुभ गया काँटा, तने तो, पर नहीं कैंचुल उतारी।।
बाँधने घंटी गले में, वे गए थे, धर दबोचे।
शक्ति बिल्ली की न आँकी, व्यर्थ ही ले ली सुपारी।।
ढोल वह तुष्टीकरण का, फट चुका, बजने न का अब।
पिट चुकी अब जातिवादी, वह समाजी-शिल्पकारी।।
ताक में थे हिंद को फिर, काटकर दो-फाड़ करने।
खीझते हैं, भोथरी जो, हो चुकी उनकी दुधारी।।
अब नही मछली फँसेगी, जाल में कोई कभी भी
राष्ट्रवादी चेतना अब, स्वार्थ पर है आज भारी।।
बज रहा हर ओर डंका, रामजी के नाम का अब।
चंडिका जनता बनी है, सिंह की करके सवारी।।
—डाॅ०अनिल गहलौत