ढ़ांचा एक सा-“प्रतिभा पाण्डेय”

आंकलन करते हो तुम मेरा…….

मेरे उठने-बैठने का तरीका देखते हो,
चलने-बोलने से मुझको तोलते हो।
भाव-भंगिमा से एक रहस्य उपजाते हो,
कल्पना से फिर बहुत खूब सजाते हो।
एक दायरा गोल बना लेते हो,
मुझे फिर उसमें बैठा लेते हो!
मेरी प्रतिभा को बिना जाने,
अपनी प्रतिमा में मुझे चुनवा देते हो!
पर इतने से भी संतुष्टि नहीं मिलती….
कैसे खाती हूँ कैसे सोती हूँ,
जानने को फिर आतुर हो जाते हो।
क्या पसंद है क्या नापसंद ?
खबर सबका रखना चाहते हो!
आखिर क्यूँ…….?
क्यूँ आंकलन करते हो तुम मेरा……?

नारीश्वर हूँ मैं भी,
तराजू में फिर क्यूँ बैठाते हो?
अब अबला नहीं,
नित प्रतिदिन होती सबला हूँ,
तेरी सरस्वती, तेरे संग कमला हूँ।
संग-साथ जीवन व्यतीत करती अर्धांगिनी,
ममतामयी, प्रेममयी तेरी ही सरला हूँ,
फिर क्यूँ आंकलन करते हो……?

हर कली नारी ही है,
ढांचा एक सा,
हृदय एक सा,
ममता एक सी,
जीवन भी एक सा।
एक सा भाव,
एक सा भान,
एक सा सौन्दर्य,
फिर बराबर,
क्यूँ ना दे पाते मान…….?
ठेस पहुंचाते हो आंकलन कर मेरा स्वाभिमान…।

(स्वरचित,मौलिक)
प्रतिभा पाण्डेय “प्रति”
चेन्नई

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