तारीखों पर टंगी यादें-“आलोक सिंह गुमशुदा”

तारीखों पर टंगी यादें
अचानक से,
मैं और तुम के बीच की
रस्सी के दोनों मजबूत छोरों को छोड़
मानस पटल पर गिरने लगती हैं l

जैसे गिरने लगते हैं
सूखे पत्ते,
जैसे,
गिरने लगते हैं आँसू,
अक्सर खुद से लड़ते लड़ते ll

यादें,
लम्हों को धक्का मार मार कर
बनाने लगती हैं उचित स्थान,

दिल से लेकर
दिमाग तक
करने लगती हैं
आगमन और
प्रस्थान ll

अक्सर ये यादें,
पेंडुलम की तरह
कभी दूर लेकर जाती हैं
तो कभी पास l

और फिर स्थिर हो जाती हैं
और टंग जाती हैं
उन्हीं रस्सियों पर
जहां से उनको फिर गिरना होता है l
जहां से उनको फिर उभरना होता है ll

आलोक सिंह गुमशुदा

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