नादाँ थे हम-“डॉ सुलक्षणा अहलावत”

नादाँ थे हम पत्थर दिल से दिल लगा बैठे,
अपने ही हाथों अपना आशियाँ जला बैठे।

समझ मोहब्ब्त का सागर नैनों को उसके,
तैरना जानते हुए खुद को हम डूबा बैठे।

ऐसे डूबे उसकी मोहब्ब्त में हम यारों,
मोहब्ब्त की मदहोशी में होंश गंवा बैठे।

इबादत ऐ यार सुबह ओ शाम की मैंने,
मोहब्ब्त में संगदिल को हम खुदा बना बैठे।

पर मारी ऐसी चोट बेवफाई की जालिम ने,
हाथों से अपने जिंदगी की लकीर मिटा बैठे।

निकली मेरी कातिल भी वो ही “सुलक्षणा”,
जिसकी मोहब्ब्त में हम सब कुछ लुटा बैठे।

©® डॉ सुलक्षणा अहलावत

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