माॅं ने जनम दिया था पिता दुनिया से मिलवाए थे।मेरी ख़ुशी की खातिर तात ने कितना दुःख उठाए थे।मेरे ही सपनों की खातिर वो अपना सुख भूल गए।गिरवी रख दी अपनी खुशियां कितने ही दुख झेल गए।वही पिता अब रहे नहीं किससे अपनी बातें कहती।जाती हूं जब भैया के घर बाबुल की यादें रहती।बाबूजी की कितनी यादें आज भी मुझे रुलाती।बचपन की स्वर्णिम यादें स्मृति में उभर के आती।चोट कहीं जब लगती मुझको मुझसे ज्यादा माॅं रोती।अविरल अश्रु धारों से माॅं जब मेरे घावों को धोती।नहीं यकी था एक दिन मुझको छोड़ अकेला जाओगे।मैं रोती रह जाऊॅंगी तुम लौट नहीं फ़िर आओगे।नन्ही थी तब आंख में मेरे अश्रु नहीं आने देते।जो कहती थी मैं रो कर सब जिद्द मेरी पूरी करते।लेकिन आज अकेली ही मैं अपने आंसू पोछ रही।आगे पीछे कोई ना दिखता मैं तन्हा ही सोच रही।केवल एक पिता के बिन ये घर कितना सूना लगता,जो था मुख्य स्तॅंभ यहाॅं वो दर कमजोर बड़ा दिखता।छोड़ के सबको चले गए आंसू अब सभी बहाते है।अपने प्यारे पापा को बच्चे कब भूल ही पाते हैं।मन की व्यथा अधीर बहुत है किसको हाल सुनाऊॅं मैं?पिता का क्या होता महत्व है कैसे ये बतालाऊॅं मैं?मात पिता का जगह जहाॅं में कोई भी ले पाए ना।याद पिता की जब जब आए होठ कभी मुस्काए ना।सच कहती हूॅं तात मेरे है शत शत नमन तुम्हे मेरा।भाव समर्पण दिल से करती अश्रु धार पावन मेरा।।मणि बेन द्विवेदीवाराणसी
