पिता-“रविंद्र ठाकुर कहलूरी”

जब – जब मैं गिरा
तुमने मुझे संभाला है
आज मैं जो जीवन जी रहा
वो तुम्हारा संवारा है
सोचता हूं की कैसे ये मैं
ऋण कभी तुम्हारा चुका पाऊंगा
शब्दों में मुमकिन कहां
लिख पाना तुम्हें
बिना तुम्हारे एक पल भी
ना गवांरा है
पिता ही साथी है , सारथी है
पिता ही सहारा है….

मेरी हर जीत के लिए
कितनी हार देखी है तुमने
मेरी खुशी के लिए
मुश्किलें हजार देखी है तुमने
तुम मेरी जिंदगी का
वो बेहतरीन किस्सा हो
जिसमें तुम्हारे किरदार को
बयां करने में शब्द
कम पड़ जाएं
हर मंच पर जब कभी
अपने संघर्षों की कहानी
कहता हूं मैं
मेरी कहानी में छुपे
तुम्हारे उस किरदार का
जिक्र खुद ब खुद हो आता है
तुम हारकर मुझसे
हर बाजी मुस्कराए हो
पर अब बड़ा हो गया हूं मैं
बचपन में शतरंज की
उस जीत को मैं
अब जाकर समझ पाया हूं

तुमने न दिन देखा
न रात देखी
तुमने तो हमेशा हमारे हालत देखे

दो वक्त की रोटी परिवार को
और मेरी ख्वाहिशें
मेरे सपने भी तो
पूरे करने थे
अब समझ आने लगा है
किरदार तुम्हारा
सोचता हूं की कैसे ये मैं
ऋण कभी तुम्हारा चुका पाऊंगा
शब्दों में मुमकिन कहां
लिख पाना तुम्हें……

   कवि : रविंद्र ठाकुर कहलूरी
   हिमाचल प्रदेश
   जिला :बिलासपुर

1 Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *