
भटकी बयार राहें भूली, कुंजन-कलिन बहारों में।
पीली-पीली सरसों फूली, पग-पग खेत कछारों में।।
कभी कुहासों में पालों की, बूँदे टप-टप गिरती हैं
कभी सुबह सूरज की किरणें, साक सुनहला करती हैं
आलू हरे-भरे खेतों से, हरियाली महकी जाए
चमकीली अलसी पुष्पों से, रँग लतरी में भर आए
लहराते अरहर को देखो, बांगर-खेत खदारों में।
पीली-पीली सरसों फूली, पग-पग खेत कछारों में।।
शिशिर झूम के हवा उठाए, तृण-तृण में कंपन आए
चना-मटर अरु बरसीमों की, खेती सुख से लहराए
गेहूंँ के उठते सुगन्ध से, आस जगे सबके मन की
गन्ने के खेतों में देखो, पोर-पोर बरसे रस की
गाजर मूली लहसुन लहके, छोटे-छोटे क्यारों में ।
पीली-पीली सरसों फूली, पग-पग खेत कछारों में।।
धुंँधले-बादल बैठन चाहें, धरती की अकवारी में
टप-टप बूँदे बरसन चाहें अमवा अरु महुआरी में
सूरज को शशि समझे चकवा, ना जाना अब है भोरे
जामुन कटहल के पत्ते सब, डूब रहे रस में बोरे
हुआ प्रात पर दूर न दिखता , उठती लहर फुहारों में।
पीली-पीली सरसों फूली, पग-पग खेत कछारों में।।
सन्नाटा पसरा है अब भी, नदी-खेत खलिहानों में
सुखदा मौसम मन को छूता, घासों कास सिवारों में
दूबा-मोथा बरसीमों में, बिछ गई ओस की बूँदें
पंछी अब भी सिहर रहे हैं, कोतर में आँखें मूँदे
धुँधला मौसम बसा हुआ है, गांँवों और पहारों में।
पीली-पीली सरसों फूली, पग-पग खेत कछारों में ।।
—————-स्वरचित एवं मौलिक गीत 🖍️ बृजेश आनन्द राय, जौनपुर (उत्तर-प्रदेश) रचना-समय 15/01/2024