मौन, उपेक्षा और अनादर,
जीवन भर तड़पाएगा ।
प्रि्ये, तुम्हारे षडयंत्रों से
‘प्राण’ नहीं बच पाएगा।।
क्या ग्रन्थि है अविश्वास की
जिसमें जीवन पलता है!
कैसा बन्धन है नातों का,
जिसमें हर-सुख ढलता है।
ना जाने आने वाला पल
किन रूपों में आएगा !
प्रिये, तुम्हारे षड्यन्त्रों से
‘प्राण’ नहीं बच पाएगा।।
इतना दिन से दूर रहे तुम,
ना कोई सन्देश दिये।
और निकट से गुजरे भी तो
आवेशित कुछ भाव लिए।
अनायास ही अपयश देकर
चैन तुम्हें क्या आएगा?
प्रिये, तुम्हारे षड्यंत्रों से
‘प्राण’ नहीं बच पाएगा।।
तुमने अपना जहाँ बसाया,
अरु छोड़ा संग-सखारे।
कटु बोली से हृदय जलाया
‘बोल-बोल के अंगारे’।
क्या करती हो आज तुम्हे,
कैसे-कर सुधि आएगा?
प्रिये, तुम्हारे षड्यंत्रों से
प्राण नहीं बच पाएगा।।
प्रत्यक्ष तेरे न होने पर
तेरी याद सहारा है।
मेरी आँखों में बसा हुआ
‘रूप-शील-गुण न्यारा’ है!
एकान्तवास ऐ जीवन-धन!
कहाँ मुझे पहुंँचाएगा?
प्रिये, तुम्हारे षड्यंत्रों से
प्राण नहीं बच पाएगा।।
–🖍️ बृजेश आनन्द राय, जौनपुर
Bhaut sunder 👌👌✍️✍️