फिर सारे रंज-“अभिषेक मिश्रा”

फिर सारे रंज ओ गम बो के आया हूं,
फिर आज उसके शहर हो के आया हूं।

उसके नैन भी आज बरसे होंगे जरूर,
अपनी नींद और तबस्सुम खो के आया हूं।

वो संगदिल मुझे समझ रहे थे बेगाना,
बस इसी बात पे जरा सा रो के आया हूं।

उसके घर की चौखट को चूमा तो लगा
आज कुछ अपने गुनाह धो के आया हूं।

और आज ये मिरी गज़ल की तकमील है,
कि उसके शहर कुछ मिसरे बो के आया हूं। स्वरचित अप्रकाशित
अभिषेक मिश्रा
बहराइच

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