बियावान घर से बाहर तक।
पसरा घोर तिमिर अंदर तक।।
चलते-चलते पाँव थक गए।
नदी नहीं पहुँची सागर तक।।
बेंगन बेचे ऊपर वाला।
करे न नर अब उसका डर तक।।
धन्नासेठ बन गए लोमड़।
पछताए हम सीधे बनकर।।
चादर ओढ़ रहे हम सोते।
बाढ़ आगई चलकर घर तक।।
ऊसर था मीलों तक पहले।
हैं अब उपजाऊ बंजर तक।।
पिंजड़ा तोड़ न फिर उड़ जाए।
नोंच लिए चिड़िया के पर तक।।
—डाॅ०अनिल गहलौत
Bhaut sunder