
खोलकर किताबो के पन्नो को में सो जाया करता था
मेरा बाबू मुझको आकर रोज जगाया करता था
जाता था रोज में अपने बस्ते में किताबे लेकर
अपनी कॉपी में रोज में सपने लिखकर लाया करता था
इच्छा होती थी अपने बाबू को खुश देखने की हमेशा
पर अपनी हर खुशी को मेरा बाबू मन में दाब लिया करता था
किस तरह पढ़ाया मुझको दिन रात रिक्शा चलाकर
अपनी एक टाइम की रोटी भी मेरा बाबू मुझको खिला दिया करता था
में अल्हड़ बुद्धि समझ नही पाता था अपने बाबू की बात
रात भर जागकर मुझको समझता था पढ़ने के लिए उकसाया करता था
बाबू की बात को में हंसकर मजाक में उड़ाया करता था
जब बड़ा में होने लगा बाबू की मुझको कही बात का एहसास करवाया करता था
पल पल याद करने लगा अपने बाबू की कही बात को
जब में स्कूल जाता था मेरा बाबू मुझको दरवाजे तक
छोड़ने को आता था झोपड़ी से मुझको आकर अपना
टाटा करने को हाथ हिलाता था मेरा बाबू मुझको आज
बहुत याद आता था उसकी सीख से आज दुनिया को
खुशियां देता हूं आज उसके सपने को सच करके आया हु
आज उसको दिए वचन को में पूरा कर पाया हुं
आज अपनी मेहनत अपने बाबू की वजह से सफल कर पाया हूं ;!
कुलदीप सिंह रुहेला
सहारनपुर उत्तर प्रदेश
वाह वाह वाह!बहुत सुंदर रचना भाई
Very very good
अति सराहनीय भाई कुलदीप सिंह रोहिल्ला
Excellent
वाह अद्भुत आदरणीय जी, बेहद खूबसूरती से आपने अपने पिता की रचना को प्रस्तुत किया है। एक चलचित्र की भांति यह सामने दिखाई भी दे रहा है। बहुत सुंदर 👏👏👏👏
बहुत सुंदर।
बहुत ही सुन्दर पिता के संग की आपकी यादें जिन्हें कविता के माध्यम से शब्दों में पिरोया है बहुत बहुत बधाई
पिता के संग की आपकी यादें जिन्हें कविता के माध्यम से शब्दों में पिरोया है बहुत बहुत बधाई