मेरा गाॅंव-“राजमाला आर्या”

मेरा गाॅंव भी अब शहर सा लगता है!
ना रहे अब वो नीम पीपल और आम की अमराई ..
वो बेफिक्र सा बचपन नदारद सा दिखता है !
सुने अब वो अंबुऐं के झूले …
बच्चों में कहाॅं अब वो बचपन दिखता है!
हर हाथ मे है मोबाइल ओर देखो चौपाल गाॅंव का अब सुना दिखता है!
ना रही वो चौधरी ओर जुम्मन की दोस्ती …
ना पंच परमेश्वर सा भाव‌ दिखता हैं!
ना अब वो रंग होली के …
ना पहले सा दिवाली का उत्साह दिखता है !
ईद की ईदी क्या होती है ?
अब पहले सा ना बच्चों में रुझान दिखता है !
पनिहारिनें अब कहानी किस्सों सी लगती है‌!
पनघट भी अब रीता सा दिखता है !
घुंघट से झाॅंकती वो ग्वालन
अब कहाॅं ?
ना वो अब गाॅंव का भोलापन दिखता है !

बिदा होती बिटिया को देने विदाई आता था पहले पुरा गाॅंव,,
आज नदारद सा दिखता है !

देखों ना ..मेरा गाॅंव भी अब शहर‌ सा लगता है !
कोई कुशलक्षेम पुछता है ना अब पहले जैसी …
ना कोई किसी से मतलब रखता है !

हरे भरे खेतों को निगलते सीमेंट कांक्रीट के जंगल,,
गाॅंव भी अब सुकुन को तरसता है !
अपनी मस्ती मे‌ मस्त सब यहाॅं,,
हर आदमी अब अपना शहरी सा अंदाज रखता है !
मेरा गाॅंव भी अब शहर सा लगता है!!
राजमाला आर्या
खंडवा मध्यप्रदेश से

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