मेरे इस तन-“डॉ सुलक्षणा”

मेरे इस तन को तो छू लोगे तुम
कभी मन को छूओ तो बात बने

हर रोज टूट जाते हैं जाने कितने ख़्वाब
टूटे ख्वाबों की चुभन को छूओ तो बात बने

सिसकियां दब जाती हैं शर्म की जकड़न में
कभी उस जकड़न को छूओ तो बात बने

सिहरत उठती हैं अधूरी इच्छाएं हर रोज
उनकी उस सिहरन को छूओ तो बात बने

एक मुद्दत से जिंदा लाश बन गयी हूँ मैं
दर्द के उस कफ़न को छूओ तो बात बने

“सुलक्षणा” की पलकों पर ठहरा है सैलाब
टूटते जा रहे बंधन को छूओ तो बात बने

©® डॉ सुलक्षणा

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