
बचपन में उंगली पकड़कर
उन्होंने मुझे है राह दिखाई
पापा की ही बदौलत मैं
इस दुनिया में हूं आई
बेटों से बढ़कर पाला हमें
कितने ही कष्ट झेलकर
जिस चीज को इशारा किया
पल में देते ना देर कर
दुख में कभी जब देखा हमें
ना रात रात भर हैं सोए
दर्द सीने में छुपा कर
है छुप छुप कर खुद रोए
खुद कंजूसी में रहकर
हम पर हैं पैसा लुटाते
मोल भाव दुकान पर करते
एक-एक पैसा हैं बचाते
परवाह बहुत है उन्हें हमारी
हर वक्त बहुत हैं समझाते
भविष्य उन्नत होगा तुम्हारा
अनुशासित जीवन शैली बताते
नाजुक, कोमल हृदय उनका
बाहर से दिखते हैं पाषाण
जिम्मेदारियों के बोझ तले
जीवन नहीं उनका आसान
हमेशा कहते यही अल्फाज़
मैं बहुत खुश नसीब हूं
मेरे घर में बेटी धन है
मैं सबसे बड़ा रईस हूं
घर के दीपक हैं पापा
मां के हैं वे सदा श्रृंगार
हर्षित है घरौंदा उन्हीं से
हमारी खुशियों का है संसार
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
लेखिका
वसुंधरा धर्माणी
शिमला
हिमाचल प्रदेश