लायटेन-“वनिता पाटनकर”

सुबह से शाम हो जाती थी,
किसी को भी मेरी याद ना आती थी,
जैसे -जैस अंधेरा होता तो खूटी पर टगी लायटेन सभी को याद आती थी,
मैं खूटी पर टगी हूं,बल्ब तुम मुझे देखकर हस रहें हों,
पर तुम कुछ भुल रहें हों।
जब तुम नहीं थे तब मैं सभी घर और आंगन को उजियारा करती थी।
हर कोई मुझे अपने पास रखता था,
थोड़ी -थोडी देर में मुझे देखकर सब का मन आनंदित हो जाता था।
मैं रात भर तपती, और सुबह तक काली हो जाती थी,
कोई मुझे मखमल के कपड़े से पोछता था, तो कोई कंकर भरी राख से,
मेरी आकृति बहुत छोटी थी पर उजियारा बहुत देती थी,
आज भी मैं पुराने घरों में टगी हूं। स्वरुप मेरा छोटा है पर प्रकाश दिव्य है मेरा,
तुम्हें तो महीनों में बदल दिया जाता है,
पर मेरा खुटी पर टंगे रहना आज भी सभी को याद है।
चाहे मुझे खुटी पर टांगा या आंगन में रखा,
मेरी बुलंदी तो आकाश को छुती थी।
तुम मुझे देखकर इतना मत हसो,
और घमंड में इतना चुर मत हों,
तुम्हारे पास तो कोई आवाज भी नहीं है,
अगर मैं फुटती हू तो लोग मेरे पास दौड़कर आते हैं।
अगर मानव मुझे लेकर अंधेरे में चलता है तो उस रास्ते पर में खुशी -खुशी झुमती हुई उसे उसकी मंजिल तक पहुंचा ती हूं।
सुबह से शाम हो जाती थी किसी को याद ना आती थी।।
स्वरचित ✍️🌹🪴🪴
वनिता पाटनकर

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