लैंसडाउन की उॅचाइयों पर-
टहलते हुए…
‘शीतकालीन ठंडी-तीव्र हवाओं
और सख्त चट्टानों के बीच
ऊर्ध्व-वृक्षों की छाया तले
दोपहर से तिरछे पड़ते सूरज की छुट-पुट किरणों के बीच-
लहराते केशों के बीच मूर्तमान गौर वर्ण का ‘श्वेत-फूल’,
दृष्टि निच्छेपित थोड़ा-नीचे पथ पर
सखियों संग मुस्क्याता-
अपनी श्वेत-दंत-प्रकाशित-लाल होठों की पंखुड़ियों के बीच-
अंजाने ही लहराता है कौमार्य की लहर!’
हृदय वहीं रुक जाता है..
एक युवा-यात्री, ठिठक-ठिठक-कर अपार आभा से गुजर जाता है…
-घायल होकर ताउम्र के लिए…!
-बस इक मुस्कान की याद के साथ…
इक लम्बी ज़िन्दगी बीत जाती है…
-नहीं बीतती है उस मुस्कान की याद…!
….नहीं लौटना होता है कभी उन पर्वतों पर…
यह जान-बूझकर कि न वह फूल स्थिर होगा न वह मुस्कान,
न जाने ‘समय-ने’ उस कुॅआरे फूल को-
किस जगह ले जाकर…प्रकृति के किस अंजाम के लिए गुजरते हुए छोड़ा होगा…
…किसी न किसी मजबूरियों के बीच…!
जैसे वह (पथिक) गुजरता रहा है अब तक की-
बढ़ते फिर ढलते…अपनी देह पर अंकित होते-
समय की मजबूरियों के साथ..!!
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🖋️ बृजेश आनन्द राय
👌👌
रजनी जी को धन्यवाद! मेरी कविता प्रकाशित करने के लिए। आशा है उनको भी ये रचना पसन्द आई होगी।