
जीवन के अनोखे अजूबे चार दिन,
गम खुशी हँसी मुस्कान के किस्से गिन ।
मौत की महबूबा पर चाबुक कसकर,
आनन्दित पुलकित जीवन में बजाती बीन ।
रंगहीन है जितना उतना रंगीन भी मिलेगा,
कोई ख्याब मीठे कोई नमकीन भी मिलेगा।
कुछ ख्वाहिशें चिल्लर की बस्ती बन गए ,
कुछ में हर पल जीवंत रंग हसीन मिलेगा ।
कैसे चार दिन की काव्य कहानी,
कैसे समझोगे मेरी आँखे नूरानी !
नशा खूब किया, करती रही प्रेम का,
जीवन की रंगीनी कभी ना होती पुरानी ।
वजूद जगह की पहचान ढूंढ रही ,
हर पेपर से अपनी नामोनिशान पूछ रही ।
रोज अस्त हो रहा जीवन का दिनकर,
क्यूँ का हिसाब करती घड़ी की सुई चुभ रही ।
अब साम्राज्यवाद है पैसों का,
गिनती नहीं कोई ऐसे तैसों का।
रिश्ता समाज इज्ज़त दोस्ती प्यार,
गोरखधंधा का कारोबार,
काटती खुद अपनी आहार,
उत्पन्न फिर निराधार गैसों का ।
(स्वरचित, मौलिक)
प्रतिभा पाण्डेय “प्रति”
चेन्नई