‘भूका बंगाल’ जैसी लम्बी कविता के रचयिता ‘शैयद अहमद मुजतबा’ प्रसिद्ध नाम ‘वामिक जौनपुरी’, ‘मीना बाजार, चीखें, जरस, शबचराग, नीला परचम, सफरे सतनाम, मीरे कारवां, आवाम और संसार फुनफका’ जैसी रचनाओं के लिए जाने जाते हैं।
उनकी यह एक विशेषता उन्हें जनप्रिय बना देती है कि अन्य उर्दू शायरों की तरह केवल उर्दू में ही नहीं रचते थे बल्कि उन्होंने हिन्दी और उर्दू दोनों में समान रूप से कविता लिखा। उन्होंने भोजपुरी बोली के शब्दों, रागों तथा लोकगीतों में रचना कर अपनी कविता को अत्यंत सरस बना दिया। वह हमेशा गांँव से व उसकी मिट्टी से जुड़े रहे। उनके जीवन का अन्तिम लम्बा समय गाँव मे ही बीता। 21 नवम्बर सन 1998 में उनकी मृत्यु हुई थी।
‘भूका है बंगाल’ जैसे अमर गीत के रचनाकार का जन्म जनपद-जौनपुर नगर से 9 किलोमीटर दूर कजगाँव के लालकोठी में एक समृद्ध व शिक्षित परिवार में 23 अक्टूबर 1909 को हुआ था। पिता खान बहादुर सैय्यद मोहम्मद मुस्तफा जिन्होंने अयोध्या में डिप्टी कलेक्टरी से सरकारी सेवा की शुरूआत की थी, वो सेवा के अंत में बरेली में कमिश्नर के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। माँ का नाम अश्र्फुनिशा बीवी था।
वामिक के पिता उनको इन्जीनियर बनाना चाहते थे। पर वह क्रांतिकारी विचार रखने के कारण विश्व इतिहास व विश्व साहित्य तथा उर्दू-अंग्रेजी साहित्य का स्वाध्याय करने में लग गये। वह भारतीय साहित्य में मुंशी प्रेमचंद तथा सज्जाद जहीर से विशेष प्रभावित थे। वह विज्ञान वर्ग की पढ़ाई छोड़कर बी.ए. व विधि की परीक्षा पासकर अयोध्या में बैरिस्टर बने पर मन शायरी में लगा रहा। अतः वकालत भी छोड़ दी। बाद में वह वाराणसी में खाद्य आपुर्ति निरीक्षक रहे। तथा इसे भी छोड़कर साहित्य में दिल्ली की राह पकड़ी। और ‘शाहराह’ पत्रिका के संपादक बने। डा. जाकिर हुसैन की प्रेरणा से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग कालेज के आफिस सुपरिटेंडेंट पद पर पुनः नौकरी मिली। बाद में कश्मीर में रीजनल इंजीनियरिंग कालेज, श्रीनगर के रजिस्ट्रार पद से सेवनिवृत्त होकर 1969 में अपने गाँव चले आये थे।
वामिक जी प्रगतिशील कवियों में प्रमुख स्थान रखते हैं। उनके ‘भूका बंगाल’ रचना को उसके प्रकाशन काल से ही इप्टा ने अपनाया और नुक्कड़ नाटकों और सड़कों पर गायन के माध्यम से कलकत्ता के अकाल-सहायता-कोश के लिए उस समय अस्सी हजार रूपये इकट्ठे किये थे। ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपनी प्रसिद्ध फिल्म ‘धरती के लाल’ में इसका उपयोग किया। सज्जाद जहीर ने अपनी पुस्तक ‘ रोशनाई का सफर’ में लिखा है ”वामिक की यह नज्म उर्दू अदब के इतिहास में सुनहरे हर्फों में लिखे जाने लायक है।”
वामिक जी को देश की विभिन्न स्थानीय बोलियों से बहुत लगाव था। इसलिए वह हर एक रचनाकार को उसके अपनी स्थानीय बोली को जिन्दा रखने के लिए अपनी पत्रिका ‘शाहराह’ के माध्यम से संपादकीय में प्रेरित करते रहते थे। पर कम ने ही उनके बात का ध्यान दिया। उन्हीं के घनिष्ठ मित्र ‘अली सरदार जाफरी’, इस विषय में कभी उनकी एक भी बात नहीं मानते थे। पर स्वयं वामिक जी ने अपनी भोजपुरी बोली में अत्यंत सरस व लोकप्रिय रचनाओं को जन्म देते रहे।
उनकी कविताओं का एक प्रमुख तत्व, लोक-तत्व है। जिसमे उन्होंने लोकगीतों को अपनाया है। बिरहा, कजरी, चैता, पचड़ा, आल्हा जैसे लोक-बोली-भाषा के छन्दों को खड़ी बोली में ढालने का सफल प्रयास किया है। ‘पचड़ा’ की धुन को खड़ी-बोली हिन्दी में सामाजिक समस्याओं से जोड़ते हुए कवि ने इस प्रकार लिखा है…
“पापों से छुटकारा देने देखें कब आते हैं साजन
बिछड़े हुओं की सुध-बुध लेने देखें कब आते हैं साजन।”
चैती पूर्वांचल तथा बिहार में चैत महीने में फसल-कटाई का प्रमुख व सरस लोक-धुन है। एक चैती की रचना ठेठ बोली में इस प्रकार देखी से जा सकती है…
“अपनी सुरतिया देखाय देव हो रामा
विरहा की अगिया बुझाय देव हो रामा।”
‘कजरी’ एक उपशास्त्रीय गायन विधा है। शास्त्रीय गायकों द्वारा यह खेमटा और विहाग के राग में भी गाया जाता है। पर उत्तर प्रदेश में लोकगीत के तर्ज पर मिर्जापुरी-कजरी, मिर्जापुर व बनारस में जिस लोक-राग में गाया जाता है, उससे जरा सा हटके शब्दों के आन्त्य अक्षरों में बदलाव करके राग में परिवर्तन कर जौनपुर में गाया जाता है। अब तो गावों में पहले जैसा महिलाओं मे पर्व-उल्लास नहीं देखा जाता है। आधुनिकता ने गावों में इतनी पक्की दीवार खड़ी कर दी है कि उत्सव मनाने के लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा है कि बालिकाएंँ अपना द्वार डाक कर उस द्वार पर जा सकें जहाँ महुए पर झूला पड़ा होता था। विज्ञान की पढ़ाई में कजरी की परम्परा कमजोर होती चली गई है। पहले इसके बहुत से कवि गाँवों मे पढे-अनपढ़े दोनों मिल जाया करते थे। लड़कियांँ सावन आने की प्रतीक्षा वर्ष-भर करती रहती थीं।
इस लोक विधा कजली का एक मुखड़ा वामिक जी की जौनपुरी-कजली में उदाहरण के तौर पर इस प्रकार से देखा जा सकता है…
“हरी-हरी पवन बहे खेतन माँ मेघा बरसे रे हरी।”
परम्परा से मिर्जापुरी कजली में प्रायः एक तरफा कोई भौजाई या सखी अपनी ननद या दूसरी सखी को सम्बोधित करते हुए हँसी-ठिठोली का प्रयोग करती हुए गीत रचना को जन्म देतीं हैं। पर वामिक जौनपुरी ने उसे दो तरफा सम्वाद का रूप दे दिया है…
एक सखी:
“कइसे जइहौं तू अकेली
कोऊ संघ ना सहेली
गुंडा घेर लेइहैं तोहरी डगरिया
बदरिया घेर आई गोरिया।”
दूसरी सखी:
“मोरे जादू अइसे नैनन
मैं अस चंचल जइसे दुरपन
गुण्डा डरिहैं देखे मोरी कटरिया
बदरिया घेर आई गोरिया…”
गज़ल उर्दू मे लिखी जाती है पर उन्होंने गाँव की गजल को जौनपुर की ठेठ बोली में लिखा है—
“ऐ री सखी कैसे बतियायें सब झूठे
कल का होई कउन बताए सब गूँगे।”
विरहा लोक-गीत पूर्वांचल में कदम-कदम पर घटना अनुसार बदलती हुई विभिन्न तर्जों पर चलने वाली दर्द, वियोग, करुणा, शान्त, वीरता और देशभक्ति की लम्बी कहानी पर आधारित कभी मार्मिक, कभी ओज गुण में बखान की जाने वाली लोक-विधा है। प्रगतिशील कवि ने इस बिरहा लोकगीत की रचना में ‘रूसी क्रांति कथा’ का जिक्र किया है…
“आवा तोहके आज सुनाई रूस देश की क्रांति-कथा
कोरा अत्याचारी रहिला जार जहाँ महाराज।”
‘आल्हा-छन्द’ को बुन्देली में न लिखकर खड़ी हिन्दी में किस प्रकार रचते हैं, वह ‘रात गये’ शीर्षक रचना में सन- 1947-1957 तक की राजनीतिक स्थिति का व्यंग्यात्मक चित्रण किस प्रकार किया गया है, देखते हैं…
“चम चम चम तलवारें चमकीं
दन दन दन बन्दूकें छूटीं
लाशों के अंबार लगे थे
भूतों के बाजार खुले थे।”
उन्होंने बच्चों को सुलाने-बहलाने की गीत-विधा ‘लोरी’ की भी रचना की है। एक लोरी इस प्रकार देखा जा सकता है:
“सरसों फूली, फूल बसन्ती, नन्हे-नन्हे प्यारे-प्यारे
सो-जा, सो जा, मेरी गुड़िया, सुबह चलेंगे खेत किनारे।”
इसी प्रकार एक सुन्दर लोक-रस में उनकी सरस निश्चल आध्यात्मिक गीत की अभिव्यंजना को देखकर लग रहा है जैसे सुख-दुख से परे निढाल हो कर कोई अपने ईष्ट को पुकार रहा है –
“अब तो आजा खेवनहार
मन की नैया डूबत जाय
कौन लगावे पार…”
आदि-आदि भोजपुरी या ठेठ लोक-तर्ज पर आधारित रचनाएँ वामिक जी द्वारा की गई हैं।
वह हिन्दी ही नहीं हिन्दवी के भी कवि माने जाते हैं। उन्होंने उर्दू के बहुत से छन्दों को भी अपनी हिन्दी कविता में जगह दी है …।
वह आशोब, सबरंग, तंज, पहेली, शहे आशोब, कसीदा, आदि उर्दू काव्य-रचना विधा को हिन्दी लिपि व अक्षर-सहित अपने साहित्य में अपनाया है।
उनकी रचनाओं के कायल कैफी आजमी तथा फैज आदि ख्याति-लब्ध शायर भी रहे थे। वह अत्यंत भावुक- देशप्रेमी रचनाकार थे। भारत विभाजन उनको सहन नहीं था। इस बात की पीड़ा उनकी रचनाओं मे झलकती है। पर जो हुआ वह भारत देश तथा देश के प्रेमियों के लिए अच्छा नहीं हुआ। उनकी ‘शरणार्थी’ कविता, शरणार्थियों के दर्द को बयां करती है…जैसे-
” बैठे तेरे द्वार पुजारी
छूट गया घरबार पुजारी
… … … … …
छूट गया घरबार!”
इस मार्मिक कविता में विस्थापन और विभाजन के दर्द का ऐसा बयान है कि प्रत्येक पाठक और श्रोता को रूला देता है। अमृतसर, लाहौर, शालिमार, गुजरावाला, रावलपिंडी से भारत में आए हुए शरणार्थियों को उनके जन्मभूमि की मिट्टी, खेत-खलिहान, मवेशी, घर-बार सब याद आता है। साथ ही उनकी यह भी ईच्छा होती है कि ‘काश! एक बार फिर हम अपने वतन जाते और सब कुछ देख पाते कि वैसा ही है कि कुछ बदला है!’ यह वतन से प्यार करने वाले विस्थापित- निर्धन व्यक्ति के भावुक हृदय की सामुहिक पीड़ा है…
“अब तो यही दिन रात लगन है
अपना वतन फिर अपना वतन है
जाते फिर इक बार पुजारी
जाते फिर इक बार।”
उनकी कविताओं में किसी व्यक्ति-विशेष के रूप सौन्दर्य के प्रति कोरी ‘भावुकता’ को उतना स्थान नहीं प्राप्त हुआ है, जितना कि समग्र समाज को।निरन्तर गिरते हुए जीवन- मूल्य, सामन्तों, नौकरशाहो, पूजीपतियों की भौतिक-प्रियता, धन व रूप की लोलुपता का आइना उनकी कविताएँ बनीं।
‘भूका बंगाल’ एक त्रासद- कविता है जो उस समय का यथार्थ चित्र हमारे सामने रख देता है…
“कोठरियों में गाजे बइठे बनिए सारा नाज
सुन्दर नारी भूख की मारी बेचे घर-घर लाज!”
प्रगतिशील कविता का आधारिक काव्य तत्त्व ‘शोषण का विरोध’ है जो उनकी कविता, बोल रे साथी बोल, जनता की लड़ाई, जिन्दाँ, जंग की हड़ताल, फ़ाख्ता आदि में दिखाई पड़ता है।
प्रगतिशील कवियों ने जिस प्रकार छायावादी कवियों के वायवीय-कल्पना, उच्च- आदर्शवाद, तत्सम-शब्दावली, छन्द-प्रियता, पद-लालित्य, उदात्त-प्रेम, प्राच्य-मोह आदि का प्रतिकार अपने काव्य में किया था, वे सभी तत्त्व इनकी कविता में उपस्थित हैं।
भाषा व भावों की सरलता, काव्य-प्रवाह व जन-प्राप्ति इनके साहित्य की विशेषता है। इन्होंने उन क्षेत्रों से कविताओं को उठाया जहाँ से अब तक कविताएँ न उठी थीं। उन्होंने सामन्त-वाद का विरोध अपनी व्यंग्य कविताओं में बड़ें चुटीले अंदाज में मुखर किया है …
“बोल रे साथी बोल
राजमहल में आग लगी है पंछी पिजड़ा खोल।”
आजकल का मुस्लिम समाज व मुस्लिम साहित्यकार अति निकृष्ट-चालाकी का परिचय देते हुए ‘भारत माता की जय’ और ‘वन्देमातरम’ के उच्चारण से भी परहेज करता हैं! ऐसा लगता है कि देशभक्ति हृदय में अंकुरित हुआ नहीं कि स्वर्ग से नीचे टपके नहीं! उन्हें इस सभ्रांतकुल उत्पन्न वामिक जी के चरित्र और कृतित्व का अध्ययन कर उनसे देशभक्ति की प्रेरणा लेनी चाहिए। यह भारत की धरती उसी प्रकार से हमारा पालन-पोषण करती है जैसे कि अपनी माँ हमारा पालन करती है। जननी माँ से जन्मभूमि माँ का महत्त्व किसी भी प्रकार कम नहीं है।
‘मजदूरों का कोरस’ में मजदूरों की स्वयं की विवशता व विभिन्न सम्वेदना को कवि द्वारा उन्हीं मजदूरों के मुख से कारुणिक ढंग से ‘भारत-माता’ के सामने प्रस्तुत किया गया है…
हम सारे मजदूर भिकारी
हैं तेरे चरनों के पुजारी
कोई तो अब छाती से लगाता
जै जै भारत माता!”
‘कलकत्ता और नोवाखली’ नामक कविता में पूरब की ध्वस्त कराती हुई सांस्कृतिक महत्ता के पुनः संयोजित करने की आशा बलवती हो रही है। इसमें मुस्लिम कवि ने बिना किसी हिचक के ‘हर’, अर्थात भगवान शंकर का नाम लिया है। सच्चे और न्यायप्रिय साहित्यिकार की यही पहचान है …
“कैसे कटेगी रात
कौन आ रहा है, गुन गा रहा है
पैदल भिकारी, हर का पुजारी
हिंसा को देता मात।”
राजनीतिक हलचल साम्यवादी प्रगतिशील कविता का प्रमुख विन्दु है। राजनीतिक गलियारों में आम जनता की उपेक्षा और महत्वाकांक्षा के शोर-शराबों से घुटती हुई जनता के निदर्शन लिए वह ‘गोहार’ नामक गीत की रचना करते हैं…
“जाग फकीरे जाग, भाग फकीरे भाग
भोर भई पर बोल रहा है,
सर पर तेरे काग।”
‘जंग की हड़ताल’, कविता में वह जंग की कमियों को दिखाते हैं। जंग किसी भी देश, जाति या मानवता के लिए कभी कुछ अच्छा लेकर नहीं आता …
“जंग की है हड़ताल, जंग की है हड़ताल
जंग से छुटकारा पाये तो दुनिया हो खुशहाल।”
उनकी ‘पहली-किरन’ जैसी कविता साम्यवादी विचारधारा की कविताओं का प्रतिनिधित्व करती है। इसकी कुछ पंक्तियाँ देखकर उनके लक्ष्य को परखा जा सकता है…
“तेज हवा करती है मुनादी
खतरे में है पूँजीवादी।”
उनका साम्यवाद आज के ‘भारत देश’ और उसके किसी-किसी प्रान्त की घटिया परिवारवादी सामन्ती-व्ववस्था का मुखौटा वाला कोई समाजवाद नहीं है, बल्कि वह समग्र मानवता के उद्धार एवं विकास में विश्वास करनेवाला साम्यवाद है। वह कहते हैं…
“फसल जहाँ तक कटती रहेगी
सबमें बराबर बटती रहेगी”
‘जनता की लड़ाई’ कविता प्रगतिशील कविता का विम्ब प्रस्तुत करती हैं …
“ये मजदूरों का लश्कर है किसानों की चढ़ाई है
ये जनता की लड़ाई है”
उनकी सभी कविताओं की भाषा अनगढ़ और सपाट है, जो अपने आप भावों के पथ पर चलती चली जाती है। कविता उन्हें बनाना नहीं पड़ता बल्कि बन जाती है। ‘शब्द और वाक्य’ अपने आप बैठता ही चला जाता है। जैसे उदाहरण के लिए ‘मकर चाँदनी’ कविता ही देखा जाय तो इस प्रकार है…
“बादल कुछ कुछ फटने लगा था
अँधियारा भी छटने लगा था…”
इस प्रकार कविताएँ स्वतः ही अनायास लिखी गई प्रतीत होती हैं। कोई विशेष योजना नहीं करनी पड़ती है तब पर भी वह जिह्वा पर आसानी से चढ़ती जाती हैं।
जहाँ-तहाँ हिन्दवी और हिन्दी दोनों साथ उन्होंने प्रयोग किया है। स्वयं वामिक जी कहा करते थे कि ‘प्रगतिशील काव्य में उर्दू जितना हिन्दी के करीब आई उतना न पहले आई थी न बाद में।’ एक ‘तंजिया गजल’ में व्यंग्य की मार देखिए…
” मुल्क यूंँ बट रहा है झगड़ों में
किसी मुर्दे का माल हो जैसे ?”
इस प्रकार से वामिक जौनपुरी एक समाजिक जिजीविषा के प्रगतिवाद काल के अनगढ़ कवि हैं, जिनमें प्रगतिशील विचार धारा के सभी उच्च आदर्श दिखाई देते हैं। समय के साथ उनकी कृतियों का मूल्यांकन, संरक्षण, एवं सम्वर्द्धन सदैव किया जाना चाहिए। जिससे कि आंचलिक साहित्य एवं साहित्यकारों की एक सजीव परम्परा को सदैव प्रवाहमान रखा जा सके।
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संन्दर्भ:
1) एक रौशन मीनार (सन 2013 में उनकी अप्रकाशित कविताओं का प्रकाशन )- संम्पादक: अजय कुमार, तद्समय राष्ट्रीय जन संस्कृति मंच के उपाध्यक्ष धे।
2) ग्रामीण जनसंपर्क
3) भूका बंगाल का उल्लेख इप्टा के इतिहास में मिलता है।
4)गूगल पर प्राप्त संछिप्त सूचनाएंँ एवं विवरण।
🖊️बृजेश आनन्द राय
पता: बृजेश आनन्द राय
जनपद: जौनपुर
उत्तर – प्रदेश