संकल्पों को पर्वत कर लें, धीरज को कर लें रत्नाकर।
विस्तृत नील गगन कर लें मन, झाँकें तो खिड़की पर जाकर।
नहीं हारकर बैठें चुप यों, बढ़कर टकराएँ विघ्नों से।
प्रश्नचिह्न बनकर न खड़े हों, रख दें हर उलझन सुलझाकर।।
पग-पग पर है एक मरुस्थल, कड़ी धूप गंतव्य दूर है।
सजल बनाना है इस पथ को, अपने श्रम-सीकर बरसाकर।।
किया असंभव को जब संभव, आँखें फटी रह गईं सबकी।
वही खड़े हैं मुँह बाए अब, गए कभी जो मुँह बिचकाकर।
देव न तुम हो और न मैं हूँ, सब परिवर्तन के पुतले हैं।
फेंक दिया करती है आँधी, कितने ही वट-वृक्ष उठाकर।
—डाॅ०अनिल गहलौत