“संस्मरण: पानीपत की ओर-“भूपेश प्रताप सिंह”

बात है 1999 की। स्नातक की पढ़ाई पूरी करके गाँव वापस आ गया ।अभी तक कुछ समझ में न आ सका था कि आगे करना क्या है। रोज़ सुबह- शाम कुछ समय खेत में काम करता और सूर्यास्त के बाद घर के पास बहने वाली नहर के पुल पर आ बैठता। सोच-विचार तो मैं बहुत करता लेकिन दिमाग में कोई ऐसी योजना फ़िट न बैठती जिससे कुछ पैसा कमाया जा सके और साथ में शहर को भी देखा जा सके। एक दिन ‘मुंबई नगरिया तु  देख बबुआ’ का गाना सुना तो लगा कि उसी शहर में जाना चाहिए लेकिन कोई जगह भी होनी चाहिए जहाँ दो जून की रोटी मिले।पहुँचते ही तो नौकरी नहीं मिलेगी और अगर मिल भी गई तो तनख्वाह तो एक महीन के बाद ही मिलेगी।अचानक दिमाग में आया कि पंडित देवराज से मिलता हूँ। इससे पहले उनको कभी न देखा था। पिताजी कभी-कभी चर्चा करते थे तो उनका बखान ही करते थे। अपने आप ही सोच लिया कि पिताजी की उनसे जमती होगी।एक दिन शाम के समय उनके पास पहुँच गया क्योंकि उन दिनों वे मुंबई से आए थे। मैं उन्हें नहीं पहचानता था लेकिन पता नहीं कैसे वे मुझे पहचान गए। मुझे देखते ही बोले, “आवा बाबू साहब अउर का हालचाल बा।”मैंने प्रणाम किया और मन में सोचने लगा कि जब इतना प्यार है तो अपना काम बन जाएगा।नीबू मिला चीनी का शरबत पीने के बाद मैंने अपनी मन की बात साफ़-साफ़ कह दी।वे सुनते रहे फिर उन्होंने भी बिना लाग-लपेट के साफ़ -साफ़ ही कहा कि आपकी नौकरी तो लगवा दूँ लेकिन शहर का जीवन आसान नहीं है और फिर मुंबई दूर बहुत है। मेरी बात मानो तो आप अभी और पढ़ाई करो।अब यह सलाह बहुत खराब लग रही थी।जी में आया कि इनको बुरा -भला कह दूँ लेकिन संस्कार ने इज़ाज़त न दी तो प्रणाम करके लौट आया। फिर उनसे कभी न कहा लेकिन अब समझ आता है कि वह पंडित जी का अनुभव था जिसका मुझे आदर करना चाहिए था जो नहीं किया और आज तक उसकी सज़ा भुगत रहा हूँ।

  शहर जाने की योजना न बन पाने के कारण मन इतना बेचैन था कि रात को नींद ही न आती। सपने में भी चिंता घेरे रहती कि जीवन कैसे चलेगा, पैसे कहाँ से कमाए जाएँ,बिना पैसे के तो भिखारी हो जाऊँगा,पढ़ाई में जो खर्च कर दिया उसका कोई मोल न रहेगा। ऐसे न जाने कितने फ़ितूर दिमाग में आते। रात और दिन में कोई अंतर न था। एक दिन शाम को पुल पर बैठा था तभी पता नहीं कहाँ से दयाराम आ टपका।मुझे देखते ही बोला -‘जय राम चाचा।’ मैंने भी सगर्व जय राम बोल दिया।मन में गुस्सा भी आ रहा था कि अगर चाचा कह रहा है तो ‘जी’ भी लगा देता तो इसका क्या घट जाता लेकिन मोची की निगाह जूते पर होती है।सोचा यह पानीपत में रहता है इसी से बात करता हूँ। बात किया तो वह मान भी गया और यह कहते हुए अपना पता बता दिया कि आप कभी भी आ जाइए। अब मैं निश्चिन्त हो गया। पहले चिंता के मारे नींद नहीं आती थी अब खुशी के मारे नींद आनी बंद हो गई।

   मैं पानीपत जाने की तैयारी में लग गया।यह सोचकर भी मन खुश होता कि इस बहाने पानीपत का वह मैदान भी देख लूँगा जहाँ लड़ाई हुई थी। पानीपत की चर्चा करके घर भर के लोगों का खाना-पीना अजीर्ण(अपच)कर दिया। शहर जाने की उतनी खुशी मुझे आज तक नहीं हुई। मुझे अच्छी तरह याद है यह क्वार का महीन था क्योंकि शारदीय नवरात्रि के अष्टमी के दिन हवन करने के बाद नवमी तिथि को ही मैं पानीपत की यात्रा पर निकला था। बड़े भाई  साहब मुझे अपने  साथ लेकर स्टेशन तक आए थे। साथ में एक लड़का और भी था। लोग उसे करिया कहते हैं क्योंकि उसका शरीर कुछ अधिक श्याम वर्ण है वैसे उसका नाम जयप्रकाश है। शाम साढ़े चार बजे के आसपास जब प्रतापगढ़ स्टेशन पर काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस आ कर खड़ी हुई तो भाई साहब के चेहरे पर मायूसी छा गई। दरअसल वे नहीं चाहते थे कि मैं अकेले किसी शहर में जाऊँ।उनके मन में असुरक्षा का भाव रहता है। मुझे ट्रेन में बैठा दिया गया और सीट भी मिल गई। संयोग से मुझे खिड़की के पास की सीट मिली। यह मेरे लिए बहुत अच्छा था। मेरे बैठने के लगभग तीन मिनट बाद ही ट्रेन पटरियों पर खट-खट-खट-खट करती हुई सरकने लगी। जब तक उजाला था बाहर झाँकता रहा। मैं गाँव का रहने वाला हूँ तो मेरे लिए कुछ नया न था।रात दस बजे लखनऊ पहुँचा।ट्रेन रुकी थी। मैं खाना खाकर सो गया। सुबह शोर-शराबे की आवाज़ कान में पड़ते ही नींद खुली गई ।देखा तो ट्रेन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर खड़ी थी। वहाँ से उतर कर लोगों से पानीपत जाने वाली ट्रेन के विषय में पूछा तो पता चला कि दो घंटे बाद जाएगी। टिकट भी खरीद लिया लेकिन ट्रेन कब आई और कब चली गई मुझे पता ही न चला। अन्त में बस से पानीपत जाना पड़ा। चूँकि मेरा काफ़ी समय दिल्ली में भटकते हुए बीत चुका था तो शाम को बस मिली और देर रात मैं किसी तरह पानीपत पहुँच गया। शेष बची रात पानीपत के बस अड्डे पर ही बीती। अनजाने शहर में मुझे वैसे भी कम ही समझ में आता है।

   सुबह होने पर दयाराम के पास पहुँचा। शाम के समय वे मुझे अपनी साथ ले कर घूमने निकले। विजयदशमी के मेले में मेरे गाँव के ही दो लोग और भी मिल गए। एक का नाम था माताफेर और दूसरे का बैजनाथ । बैजनाथ तो उस समय के मेरे ग्रामप्रधान दूधनाथ के सगे भाई थे। ‘थे’ इसलिए लिख रहा हूँ कि दोनों ही अब इस दुनिया में नहीं हैं। मेले में मुझे देखते ही दोनों के चेहरे खिल गए। 

  हम आपस में बातें कर ही रहे थे कि वहीं लालमणि भी आ गया। यह कोई और नहीं बल्कि मेरा ही दोस्त था जो  बिना मुझे बताए रुपये कमाने यहाँ गया था ।इससे मेरा परिचय सिंगरामऊ में तब हुआ था जब मैं स्नातक द्वितीय वर्ष में था। मुझे देखते ही चहककर बोला, “अरे भैया! आप यहाँ  कैसे आ गए ?” 

“क्यों पानीपत तूने पट्टा लिखवा लिया है क्या?”- मैंने मज़ाकिया लहज़े में कहा। आसपास खड़े लोग भी हँसने लगे। 

  रात के समय माताफेर और बैजनाथ दोनों ने चिलम चढ़ाई और गाँजे के धुएँ से कमरा भर दिया। सॉंस लेते नहीं बनता था बाहर निकल आया। दयाराम के यहाँ जा नहीं सकता था क्योंकि ये उसे वापस भेज चुके थे। अगर गाँजे की बात छोड़ दूँ तो ये दोनों मुझसे बहुत प्रेम करते थे लेकिन नशाखोर काबू में कहाँ होते हैं। सड़क की दूसरी तरफ लालमणि का कमरा था। मुझे बाहर देखते ही वह अपने पास बुला लिया।

   अगली सुबह वह मुझे अपनी फैक्ट्री दिखाने ले गया। इसके बाद तो वह और भी कई फैक्ट्रियों में ले गया लेकिन हर जगह एक ही काम दिखाता। कालीन बुनी जा रही थी – रंगीन ,सादी, खुरदरी , तिकोनी , चौकोर। अब तक काफी प्यास लग चुकी थी ।हम बोतल से ही पानी पी रहे थे। मैंने पूछा – “भाई लालमणि एक बात बताना, दुनिया भर के जुलाहे यही रहते हैं क्या ?” वह इतनी तेज़ी से हँसा कि उसके मुँह में भरा पानी फौवारे की तरह मेरे ऊपर पड़ा। जब जी भर के दोनों हँस चुके तो बोला, “यही तो मैं कल कह रहा था कि आप यहाँ कहाँ ? कपास लोगों के फेफड़ों को खराब कर देती है।” मैंने तय कर लिया कि कल ही गाँव आप लौट जाऊँगा। मोल के लिए अनमोल को नहीं खोया जा सकता। किया भी वही अगले दिन दिल्ली वापस आ गया। एक रिश्तेदार के यहाँ दो दिन रहकर गाँव लौट आया। अब मैं सभी को खूब पढ़ने के बाद ही घर छोड़ने की हिदायत देता हूँ लेकिन गरीबी के कारण कोई नहीं मानता। 

भूपेश प्रताप सिंह

पट्टी,प्रतापगढ़ , उत्तरप्रदेश

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